हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, मौलाना मुफ़्ती मोहम्मद अब्बास इबने सय्यद अब्दुल करीम रिज़वी की पैदाइश 1925ई॰ में सरज़मीने मुज़फ्फ़रपुर सूबा बिहार पर हुई,
आपका सिलसिला ए नसब इमामे रज़ा अ: तक पहुंचता है, कमसिनी में साया ए पिदरी से महरूम हो गये, आपको बचपन से ही हुसूले इल्म और किताबें पढ़ने का बेपनाह शोक़ था, इल्म के शोक़ में बहुत सारी परेशानयों का सामना करते हुए तालीमी मराहिल तै किये।
आपने इब्तेदाई तालीम “मदरसए अब्बासया पटना बिहार” में हासिल की, आला तालीम हासिल करने की गरज़ से लखनऊ पोंहचे और जामिया सुलतानया से 1964ई॰ में सदरुल अफ़ाज़िल की सनद हासिल की, मुफ़्ती मोहम्मद अब्बास, इलमे तफ़सीर, हदीस, मनतिक़, फ़लसफ़ा, उसूले फ़िक़ह, खिताबत और दिगर उलूम में माहिर थे, आपकी मुफ़ीद और क़ीमती ज़िंदगी लोगों को मक़सदे खिलक़त, ईमानदारी, दयानतदारी, तक़वा परहेज़गारी की तरफ़ रग़बत दिलाने में सर्फ़ हुई, मुजफ़्फ़ुरपुर और अतराफ़ के शहर, तहसील, क़स्बे, महल्ला और कालोनी में उनकी तरबियत के असरात मुरत्त्ब हुए जो आज भी लोगों के किरदार, अखलाक़ और अमल से ज़ाहिर है, मोसूफ़ के इसलाही, समाजी और अखलाक़ी कारनामे रहती दुनया तक मशअले राह बने रहेंगे।
मुफ़्ती मोहम्मद अब्बास ने मुल्क और बैरुने मुल्क में आपने फ़रीज़े को अच्छी तरह निभाया जिनमें सन 1946ई॰ से 1950ई॰ तक महल्ला कमरा मुज़फ्फ़रपुर की जामे मस्जिद मोक़ूफ़ा नवाब मोहम्मद तक़ी खाँ में इमामे जुमा वा जमाअत रहे सन 1950 ई॰ में तनज़ानया के शहर “लिंडी” में पेशनमाज़ की हैसियत से दस साल खिदमात अंजाम दीं सन 1960ई॰ में अपने वतन वापस आ गये और सन 1961ई॰ में दोबारा अफ्रीक़ा के शहर “मनामा” का रुख़ किया और पेशनमाज़ी के फ़राइज़ के साथ अहकाम, अखलाक़ और क़ुराने मजीद की तालीम से लोगों को मुज़य्यन फ़रमाते रहे।
एक मुद्दत तक फ़रीज़ा ए दीनी को अंजाम देने के बाद अपने वतन का रुख़ किया और सरज़मीने मुज़फ्फ़रपुर के महल्ला कमरा की जामा मस्जिद में वज़ाइफ़ की अंजाम दही में मसरूफ़ हो गये और अपनी आख़री उम्र तक इमामे जुमा वल जामाअत के ओहदे पर फ़ाइज़ रहे।
आप अज़ादारी को अपनी हयात समझते थे और जब तक बाहयात रहे अज़ादारी के फ़रोग में मुंहमिक रहे, अज़ादारी में रस्मो रिवाज के नाम पर किसी तरह की नई रस्म को दाख़िल नहीं होने दिया, ख़ुद मातम वा सीना ज़नी में हिस्सा लेते, नोहाखानी किया करते, आपकी निगरानी में मजलिस, जुलूस और ताज़ियादारी होती रही, मोसूफ़ अशरा ए मोहर्रमुल हराम की मजलिस हर साल रिवायति अंदाज़ में “इमाम बारगाह सय्यद मोहम्मद तक़ी खाँ” में पढ़ते तो बिला तफ़रीक़ मज़हब वा मिल्लत तमाम आशेक़ाने इमामे हुसैन अ: उनकी तक़रीर को सुनने के लिये वक़्त की पाबंदी के साथ हाज़िर होते, मुफ़्ती मोहम्मद अब्बास दिगर मज़ाहिब के अफ़राद के दरमियान मक़बूल थे।
आखिरकार ये इल्मो फ़ज़्ल का अफ़ताब 22 ज़िलहिज्जा 1412 हिजरी बामुताबिक़ 1992ई॰ बरोज़ पंजशंबा सरज़मीने मुज़फ्फ़रपुर पर गुरूब हो गया, मजमे की हज़ार आहो बुका के हमराह जनाज़े को आपकी वसियत के मुताबिक़ “कर्बला लशकरीपुर दाऊदीपुर” मुज़फ्फ़रपुर में सुपुर्दे ख़ाक कर दिया गया।
माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़: मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-9 पेज-106 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2023ईस्वी।